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मृत्युभोज और तेरहवीं का बोझ हटाने की अनूठी पहल

शशिकांत ने कहा कि दो साल पहले कमलेश मानव ने अपनी पत्नी पिंकी सिन्हा के निधन के बाद छूत-छुतका और मृत्युभोज जैसी परंपराओं को छोड़कर नई पद्धति की नींव रखी थी। उसी का अनुसरण कर उन्हें खुशी और शांति मिल रही है।

अरियरी प्रखंड के घुसकुरी गांव निवासी शशिकांत निराला के पिता मदन मोहन प्रसाद का 22 अप्रैल को बीमारी से निधन हो गया। वे निरंकारी मिशन से जुड़े थे। निधन से पहले ही उन्होंने घरवालों से कह दिया था कि उनका दाह संस्कार गांव के श्मशान में किया जाए और श्राद्धकर्म पांच दिन में पूरा कर दिया जाए।

शशिकांत निराला ने पिता की इच्छा के अनुसार गांव के श्मशान में अंतिम संस्कार किया। तेरहवीं तक का कार्यक्रम नहीं किया। पांच दिन में ही निरंकारी महात्मा का प्रवचन कर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया। मृत्युभोज भी नहीं हुआ। निरंकारी मिशन के विधान के अनुसार लंगर के रूप में प्रसाद बांटकर कार्यक्रम समाप्त किया गया।

इन पांच दिनों में किसी तरह की छूत या अशुद्धि जैसी बात नहीं देखी गई। शशिकांत निराला ने बताया कि इस नए तरीके से किए गए कार्यक्रम में घर के सभी भाई-बहनों और माताजी का पूरा सहयोग मिला। आसपास के निरंकारी मिशन से जुड़े लोगों ने भी समर्थन दिया।

उन्होंने कहा कि गांव-समाज के लोगों ने खुलकर विरोध नहीं किया, लेकिन पूरे कार्यक्रम में दूरी बनाए रखी। शशिकांत ने बताया कि जब भी समाज के व्यवहार से मन विचलित होता, तो उन्हें कमलेश मानव की याद आती। उनकी विचारधारा प्रेरणा का स्रोत रही।

उन्होंने कहा कि मृत्युभोज और तेरहवीं तक का श्राद्धकार्यक्रम समाज पर अनावश्यक बोझ है।

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